कितना सुलभ है जीए हुए को लिखना,कितना दुर्लभ है लिखे हुए को जीना, कितना मुश्किल है पंखों को खोलना और उड़ जाना बिना कोई मुखौटा लगाए, कितना मुश्किल है मान लेना कि दांत वाली परी आके दांत ले जाती है और कि मूँह नुचवा सच मे मूँह नोचता था| संसार क्या वाकई में इतना सुंदर है जितना हमने लिखा है? या ये सब एक झूठ है? मेरा लिखना, आपका पढ़ना|
अगर सच कड़वा है तो क्या झूठ मीठा होता है ? अपने मीठे मीठे झूठ मे हमने अपने कडवे सच को दबा रखा है|
“हम्म मिली ! आज कहाँ तक पहुंची किताब?” शशांक ने अपना मुखौटा पहन लिया|
“सर आज तो, कुछ आ ही नहीं रहा लिखने को बस यही लिख पाई|” मिली ने अपना लैपटॉप शशांक कि तरफ मोड़ा|
शशांक थोड़ा झुका और अपना दायाँ गाल मिली के बाएं गाल से सटा दिया। मिली के कपोलो के स्वेद बिंदु शशांक के गाल पर चिपक गए और शशांक का खुरदुरा गाल अपने छोटे छोटे गड्ढों से उन स्वेद बिंदुओं का आसवादन करने लगा। मिली अपनी उंगलियों से खेलने लगी और एक टक स्क्रीन पर देखती रही, उसकी सांसें तेज़ होने लगीं और शशांक के इतने करीब रह कर उसे घुटन होने लगी। शशांक आगे बढ़ने की फिराक में था।
वासना में डूबा व्यक्ति स्वेच्छा से डूबा होता है और डूबा रहना चाहता है, बाहर से दिखता है की वह बाहर आने के लिए अनन्य प्रयास कर रहा है पर आंतरिक रूप से वह डूबा ही रहना चाहता है।
शशांक का दायां हाथ अब मिली की कमर पे था, इस नए स्पर्श से मिली के हृदय में नई घबराहट उठी और मिली के शरीर में फैलने लगी। शशांक का हाथ अब उसकी कमर से नीचे जाने लगा, हृदय की टीस बढ़ने लगी, मिली अपने साथ ऐसा होते हुए नहीं देख सकती थी, मिली को उठना था और वहां से भाग जाना था।
मिली तुरंत ही आवेग में उठी, शशांक ने नही सोचा था की मिली की ऐसी भी प्रतिक्रिया हो सकती है, गुस्से से भरी मिली ने बोला
"तुम समझते क्या हो अपने आप को, मैं कोई तुम्हारी खेती हूं? जो जब चाहा जैसे चाहा जहां से चाहा घुस गए" मिली ने आखें तरेर कर कहा, और एक तमाचा शशांक के उन्ही गालों पर जड़ कर, " नही चाहिए तुम्हारी मदद, अपनी कहानी खुद लिख सकती हूं, आइंदा से आस पास दिख मत जाना।" कहकर वहां से चली गई।
अच्छा किया न मिली ने?
पर मिली ने ऐसा किया नही।
उपरोक्त लिखी चीज़ें सच नही हैं, प्रायः झूठ हैं, अपने मीठे मीठे झूठ मे हमने अपने कडवे सच को दबा रखा है|
सच तो यह है कि मिली ने उस दिन शशांक को नही रोका, शशांक के हाथ जहां जाने को थे, वहां गए, उसकी आखें वह जहां ले जाना चाहता था, वहां ले गया और मिली ने उसे नही रोका, शशांक के पास एक ही तर्क था यह सब करने का, "मिली! तुम्हे अपना कहानी संग्रह छपवाना है की नही? मेरी मदद लिए बिना कर लोगी? नही न? घर में पैसे के भी तंगी है, बूढ़े मां बाप का ध्यान तुम्हे ही रखना है न मिली? तो इन सब के लिए मेरा खुश रहना जरूरी है न?"
मिली उस दिन के चलचित्र में एक मूक किरदार की तरह रह गई, क्या मिली शशांक को रोक सकती थी? बिलकुल।
क्या उसने रोका? नही।
भला ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए की झूठ का एक मुखौटा मिली ने स्वयं भी पहना था, यह झूठ की शशांक ही उसके कविता संग्रह को को बिकवा सकता है और कोई नहीं। सो मिली को लगा की पल भर के असुविधा के लिए वह अपने जीवन के इतने महत्वपूर्ण पड़ाव पर चढ़ना दाव नही लगा सकती।
अभी कुछ दिन पहले ही मिली यहां आई थी।
इतवार की सुबह थी उस दिन और सुबह सुबह ही किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी, जैसे ही मैने दरवाजा खोला, मिली ने अपना मुखौटा हटा दिया।
मैं मिली को जानती तो थी पहले से पर उसका चेहरे की बनावट मेरे मन में साफ नही थी,
"जी ?" मैने अपना दुपट्टा कंधे पर डाल कर कहा।
"गुड मॉर्निंग मैम, आपने शायद पहचाना नहीं, मैं मिली। शशांक सर के ऑफिस में काम करती हूं।" मिली ने एक तीखी मुस्कुराहट देके कहा।
"ओह मिली! अरे! अंदर आ जाओ। वो नींद में एकदम से पहचान नहीं पाई, आओ आओ!" मैने अंदर सोफे पे इशारा करते हुए कहा, मिली बहुत ही सहजता से वहां जा कर बैठ गई, उसकी आखें फूली फूली थीं पर वह अपनी मुस्कुराहट से चेहरे की थकान को छुपाने का असफल प्रयास कर रही थी।
थकी हुई लगती हो, "चाय या कॉफी? ना मत करना क्योंकि मैं दोनो ही बहुत कमाल बनाती हूं।" मैने हस कर मिली को अपना पन जताना चाहा, उसने भी एक झूठी हंसी हंसी और बोल दिया
"कॉफी चलेगी, मैं आती हूं आपकी मदद करने।"
" अरे कोई जरूरत नहीं, शशांक के इतने काम करती हूं, अब तो आदत सी है" कहकर मैं किचन में चली आई।
मुझे फिर सहसा याद आया कि शशांक तो घर पर हैं नहीं, मिली को बता देना चाहिए, की वो कल रात से कहीं बाहर ही हैं।
"मिली, वैसे आज वो घर पर नहीं हैं, कल रात से ही कहीं बाहर गए थे, अभी तक आए नहीं, हालांकि तुम उनका इंतजार कर सकती हो" मैने थोड़ी तेज आवाज में कहा ताकि मिली मुझे सुन पाए।
कुछ समय हुआ और मिली का कोई भी उत्तर नही आया। मैने पीछे पलट के देखा तो मिली वहां मूक खड़ी हुई थी। उसकी एक आंख में से अश्रु धारा बह रही थी।
" मिली? क्या हुआ? तुम रो क्यों रही हो? में शशांक को कॉल करती हुं। " मैने टेलीफोन हाथ में लिया।
" नही नही मैम, प्लीज।" उसने हाथ जोड़ लिए।
" मैं यहां आपके लिए आई हूं, मुझे आपसे कुछ बात करनी है" उसने अपने आसूं पोंछे। मेरा ध्यान उसके कानो के झुमको पर गया, ये वहीं झुमके थे, जो मुझे कुछ दिनों पहले पसंद आए थे और मैने शशांक से कहा था " कितने सुंदर हैं ये, देखिए" और शशांक से अपना सर हिला दिया था। मिली के कुछ कहने के पहले ही मैं सब कुछ समझ गई थी।
"शांत हो जाओ मिली खुल के कहो, डरो मत। "
ऐसा बहुत कम होता है जब इंसान अपना मुखौटा फेंक कर किसी से अपने मन के बात कहे।
" मैम, वो कुछ दिनों पहले, मैं ऑफिस में अपने कहानी पर काम कर रही थी" अत्यधिक रोने से उसको हिचकियां आना चालू हो गईं। " तब ही शशांक मेरे पास आए और....."
मिली ने एक एक कर के मुझे सब बता दिया, जो जैसा हुआ, वैसा का वैसा, बिलकुल साफ।
हृदय में एक टीस उठी, और बाहर उमड़ने लगी, हाथ पांव फूलने लगे, और सर के बालों के बीच से पसीना रेंगने लगा। आखें मिली की आखों से मिली, उसकी आखों में असहायता दिखी, मजबूरी दिखी, अन्याय दिखा। हाथ उठने को थे, कि मिली को कंधो से पकड़ कर झक झोर दिया जाए, पर मन में कुछ और था, एक स्त्री ही स्त्री के मन को जान सकती है, एक स्त्री के मन की थाह पाना लगभग असम्भव के बराबर ही है।
मैने मिली को गले से लगा लिया, उसके बालों को सहलाया, मन में ममता जाग उठी, वैसी ही ममता जैसी मुझे मेरे 5 साल के बेटे के लिए उठती है।
कुछ देर बाद मिली चली गई। बाहर जाते वक्त उसने अपना मुखौटा फिर से पहन लिया।
आज कुछ दिनों बाद वापस इतवार आया है, आज सुबह फिर दरवाज़े पर दस्तक हुई,
"सरप्राईज! " आरोही का चेहरा सूरज के समान चमक रहा था।
वह मेरे कालेज की दोस्त है, शादी करके कनाडा चली गई, और अब आई है मिलने। मैं दरवाजा खोलने के बाद उसका गिरा मुखौटा खोजने लगी।
आरोही की चपड चपड़ मैं सुनती रही, मुझे किसी चीज में रस नहीं आ रहा था।
अपनी हजारों बातों के बीच उसने एक बात कही,
" तुझे पता है तू कितनी किस्मत वाली है जो तुझे इतना अच्छा पति मिला है। इतना खयाल तो कोई भी पति अपनी पत्नी का नहीं रखता।" यह कहकर वह मुझे छेड़ने लगी, अपनी उंगली से मेरे पेट में गुदगुदी करने लगे।
मैने अपनी झूठी मुस्कान दी और नीचे पड़ा हुआ अपना मुखौटा उठा पहन कर कहा,
" शशांक तो, लाखों में एक हैं, इतना प्यार करने वाला पति मुझे मेरे अच्छे भाग्य ने तो ही दिलवाया है।" मेरा मुखौटा फिसल रहा था पर मैंने उसे वापस ठीक कर कर पहन लिया।
अगर सच कड़वा है तो क्या झूठ मीठा होता है ? अपने मीठे मीठे झूठ मे हमने अपने कडवे सच को दबा रखा है|
आरोही शाम को ही मुझसे विदा लेकर चली गई, और मेरा बिना मुखौटे वाले चेहरा नहीं देख पाई।
मेरा पांच साल का बेटा खेल रहा है, मन से वचन से कर्म से, वह बस खेल रहा है, वह हो भी काम करता है, उस काम में सत्यता होती है, रोएगा भी तो एकदम सच्चा वाला, हसेगा भी तो एकदम सच्चा वाला, रोना आ रहा हो तो हसेगा नहीं और हंसेगा तो खुल के हंसेगा। वह अपना लिखा हुआ जी रहा है। कितना दुर्लभ है।
मैं भी चाहती हूं की मुखौटा उतार फेंकू, पर अब यह मेरे चेहरे से चिपक गया है।
शशांक किचन में पीछे से आया है और उसने मुझे कसकर पकड़ लिया है। " पीली साड़ी में अच्छी लगती हो। " उसने धीमे स्वर में कहा। मैं पलटी और शशांक की आखों में झांक ने लगी, बड़ी देर तक उसके मुखौटे को निहारती रही।
" क्या हुआ?" शशांक ने पूछा।
" कुछ नहीं।" मैने कहा।
कितना सुलभ है जीए हुए को लिखना,कितना दुर्लभ है लिखे हुए को जीना, कितना मुश्किल है पंखों को खोलना और उड़ जाना बिना कोई मुखौटा लगाए, कितना मुश्किल है मान लेना कि दांत वाली परी आके दांत ले जाती है और कि मूँह नुचवा सच मे मूँह नोचता था| संसार क्या वाकई में इतनी सुंदर है जितना हमने लिखा है? या ये सब एक झूठ है? मेरा लिखना, आपका पढ़ना?
अगर सच कड़वा है तो क्या झूठ मीठा होता है ? अपने मीठे मीठे झूठ मे हमने अपने कडवे सच को दबा रखा है|
~ अनंत
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